स्नेह का बीज



बीते दिन फिर याद आ गये। जब हम थोड़े समय के लिए खुद के साथ वक्त गुजारते हैं तो जीवन की ढेरों परतें एक के बाद एक खुलने लगती हैं। हम बहुत ऐसा महसूस करने लगते हैं जो हमारे लिए अलग होता है। विचारों का टकराव सामान्य बात हो सकती है।

‘‘धूप उड़ रही धूल की तरह,
है न अजीब जिंदगी की सरगम,
टहनी बिना पत्तों की खिली फूल की तरह,
उलझी लटाओं में मुस्कान बिखेरती हुई।’’

उस वृक्ष को मैं बीज के जमाने से जानता हूं। मैंने उसे बोया था। बाजार नहीं गया, किसी से नहीं कहा। हैरान थी मां जब वह पौधा उगा। पिताजी ने उसे करीब से देखा, छुआ और मेरे गाल पर दुलार का हल्का थप्पड़ मारा।

‘‘समझदार निकला तू तो।’’ उन्होंने कहा।

हम उसे मिलकर सींचते। ऐसा लगता जैसे वह घर का सदस्य हो। सच में ऐसा हुआ था।

‘‘जीवन रस जीवन भर,
बहती धारा प्रेम की,
सुर-लय-ताल मधुर गीत,
उजली किरण स्नेह भरी।’’

पौधा वृक्ष बन गया। छायादार हुआ। हरियाली बिखेरता रहा। स्नेह का बीज रोपा था मैंने। वह आज भी मुस्करा रहा है उसी तरह।

प्रकृति ने वृक्ष दिया है, हम उसे सींच रहे हैं। जीवन इसी वजह से टिका है और स्नेह बिखरा पड़ा है।

‘‘जीवन हंस बोल रहा,
चुपके से मिसरी घोल रहा,
यही है जीवन का सार,
प्रकृति जीवन का आधार।’’

-हरमिन्दर सिंह चाहल.
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