सफरनामा : गजरौला से बिजनौर -3

train safarnama
बारिश की रफ्तार कम नहीं होने वाली थी। बादलों की गर्जन थमने का नाम नहीं ले रही थी। गड़गड़ाहट के साथ तेज बरसात पड़ रही थी। गेट के पास जाकर मैंने जायजा लिया। मैंने देखा बूंदों से खेत-खलिहान नहाये हुए हैं। सब जगह पानी-पानी नजर आ रहा था। कुछ यात्री बारिश को देखने के लिए गेट से सटे खड़े थे। उनके कपड़े भीगे हुए थे। उन्हें उसकी फिक्र नहीं थी। वह राहत गरमी से थी और उनके लिए माहौल का आंनद लेना बहुत बड़ी खुशकिस्मती थी। यात्रा मजेदार तरीके से कट रही थी उनकी और पूरी मौज के साथ। बाहर का नजारा बरसातमयी था। बहुत दिनों की गरमी के बाद यह दिन आया था। उनके लिए यह एक तरह का जश्न था। उसका आनंद लेने से भला वे कैसे चूक सकते थे। प्रसन्नता मुझे भी हो रही थी। मगर मैं अपने कपड़ों को भिगोना नहीं चाहता था।

मोबाइल वाला लड़का
एक लड़का अपने मोबाइल को बार-बार देखता। उसकी बैटरी को निकालता, फिर लगा देता। ऐसा उसने पिछले बीस मिनट में पांच या छह बार किया। मैंने समय देखने के लिए अपना फोन निकाला। तभी उसने मुझे अपना फोन देकर कहा कि वह बार-बार बंद हो जाता है। क्या मैं उसकी कुछ मदद कर सकता हूं?

उसे मालूम नहीं था कि मैं मोबाइल फोन की मरम्मत नहीं कर सकता। जो फोन मेरे पास है उसमें भी केवल मैं जरुर की चीजों को करता हूं, बाकि के साथ छेड़छाड़ नहीं करता। जिद करने पर मैंने उसका फोन देखा। कहा कि वह फोन को जाकर सर्विस सेन्टर पर दिखाये। लड़का बोला कि उसने किसी से सस्ते में खरीदा है। कीमत बताई दो हजार रुपये। वह फोन चीन में बना था। उसकी बैटरी पर मेड इन चायना लिखा था।

मैंने उसे समझाया कि यदि वह कुछ पैसे ओर खर्च कर अच्छे ब्रांड का नया फोन खरीदता तो यह नौबत न आती। सस्ते के कारण बहुत से लोग परेशानी झेलते हैं।

लड़के ने मेरा फोन देखा। वह उसे देखकर काफी खुश हुआ। आधे घंटे तक वह उसमें पता नहीं क्या देखता रहा। मैं उसके हाव भाव देख रहा था। उसने कहा कि मेरे फोन में गाने इक्का-दुक्का हैं। मैंने बताया कि मैं गीत-संगीत का शौक नहीं रखता। वे भी ऐसे ही किसी ने डाल दिये हैं।

हमारी बातचीत जारी थी कि अगला स्टेशन आ गया। यह उसका पड़ाव था। उसने मुझसे हाथ मिलाया और मुस्कराता हुआ गाड़ी से उतर गया।

जल्दबाजी में उसका एक थैला वहीं छूट गया। शुक्र था मुझे तुरंत दिख गया। मैं दौड़कर प्लेटफार्म पर पहुंचा और उसे आवाज दी। अभी वह कुछ ही दूर गया था। वह पूरी तरह भीगा था और मैं भी भीग चुका था। उसने धन्यवाद किया और दौड़ गया। मैं भी रेलगाड़ी की ओर दौड़ पड़ा।

सफर की शुरुआत से लेकर अबतक खुद को भीगने से बचा रहा था मैं। अंततः पानी से सराबोर हो ही गया। जूतों में पानी भर गया था जो कपड़ों के सहारे प्रवेश कर गया। मैंने जूतों को निकाला, मोजों को किनारे किया और नंगे पैर पालथी मारकर बैठ गया। खिड़की की ओर देखा, बूंदें टकरा रही थीं। जिंदगी का गीत अद्भुत था। खामोश बैठे चेहरों को देखकर मैं भी खामोश था। वे पल उत्साहित नहीं करते थे, न ही कुछ कहते थे, बल्कि एक वातावरण था जिसमें इंसान खाली सोच के यूं ही ताक रहे थे -कभी एक-दूसरे को, कभी इधर-उधर।
सफरनामा जारी है...

-हरमिन्दर सिंह चाहल.
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