सफरनामा : गजरौला से दिल्ली

आबादी के कारण परेशानी का उदाहरण हम यात्रा के दौरान महसूस कर सकते हैं। यदि हमें पता करना है आबादी के बढ़ने से होने वाली समस्याओं का तो सबसे पहले भारत की ट्रेनों में सफर करना चाहिये....

सुबह पांच बजे फोन बजने लगा। रवि ने याद दिलाया कि दिल्ली जानेवाली रेलगाड़ी का समय साढ़े छह है। उसके बाद भी कई ट्रेन हैं लेकिन भीड़ और गरमी में यह संभव नहीं।

रवि स्टेशन पर मेरा इंतजार कर रहा था। करीब छह बजे पहुंचा। आधा घंटा बातों में निकल गया।

सुबह गजरौला से दिल्ली जाने वाले अधिक यात्री नहीं होते। शहर की आबादी लगभग 1 लाख है जो धीरे-धीरे बढ़ रही है। खुली सडकें हैं। छोटा शहर है। शोर शराबा न के बराबर, सिवाय चौपला के जहां नेशनल हाइवे होने के कारण ट्रैफिक कभी-कभी ज्यादा हो जाता है।

दुकानदार और छोटे व्यवसायी यहां से ट्रेनों में आने जाने वालों में पचास फीसदी से अधिक हैं। वे 9 बजे से 10 बजे के मध्य गुजरने वाली ट्रेनों में सफर करते हैं।

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हम ट्रेन में सवार हो चुके थे। मुश्किल से गिने-चुने यात्री हमारे डिब्बे में थे। सामने बैठी एक मां, उसकी गोद में बेटी और साथ में पति। बच्ची के हाथ में बिस्कुट का पैकेट था जिसे वह आधा निपटा चुकी थी। हाथ और मुंह को उसकी मां एक कपड़े से साफ करती रहती। पिता का ध्यान खिड़की से बाहर था।

मैं दरवाजे के पास खड़ा हो गया ताकि चलती ट्रेन से कुछ नजारे कैद कर सकूं। खेतों की हरियाली और पल-पल बदलती जमीन को देखकर जीवन के बदलावों के विषय में सोचने लगा।

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ट्रेन एक स्टेशन पर रूकी तो भीड़ से वास्ता हुआ। मेरा कैमरा गिरते-गिरते बचा। मेरा पैर दो अन्य पैरों के नीचे दबा। मुश्किल से रवि तक पहुंचा। वह बोला ,"बैठने में भलाई है।"

आबादी के कारण परेशानी का उदाहरण हम यात्रा के दौरान महसूस कर सकते हैं। यदि हमें पता करना है आबादी के बढ़ने से होने वाली समस्याओं का तो सबसे पहले भारत की ट्रेनों में सफर करना चाहिये।

गजरौला से दिल्ली का सफर दो या ढाई घंटे का है, लेकिन तीन घंटे भी लग सकते हैं। पटरियां उतनी अच्छी नहीं जो ट्रेन तेज रफ्तार पर चल सके।

मैं उन अनगिनत चेहरों की ओर देख रहा था जो हमारी तरह हैं, आज इस सफर, कल कहीं ओर। रेलगाड़ी का सफर भी जिंदगी के सफर की तरह है जहां लोग आते हैं, जाते हैं और सफर यूं ही जारी रहता है।

harminder singh

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