विश्वास के साथ बुढ़ापा


बूढ़े काका अखबार को इतने ध्यान से पढ़ रहे थे कि ऐसा लग रहा था जैसे उसमें समा जायेंगे। सुबह के 8 बजने को थे। चाय की प्याली आधी खाली थी। भाप उठ नहीं रही थी क्योंकि चाय ठंडी हो चुकी थी। मतलब साफ था, काका को समय बहुत बीत गया था। वे चाय पीना भूल गये थे।

‘आपकी चाय पानी हो गयी।’ मैंने कहा।

पहले से ध्यान मग्न काका ने अनसुना किया। अब वे अगले पन्ने को पलट चुके थे।

‘दोबारा चाय ला रहा हूं।’ मैं बोला। ‘इस बार इंतजार मत कराइयेगा।’
बूढ़े काका ने हामी भरी।

तभी मां आलू की पकौड़ी ले आयी। चाय की केतली साथ में थी और काका की मनपसंद चटनी।

ऐसा लगा जैसे काका उसी पल के इंतजार में थे। तुरंत अखबार को एक कोने में रख दिया।

‘मुझे आश्चर्य हो रहा है।’ मैंने कहा।

‘किस लिए।’ काका बोले।

‘अखबार अभी अधूरा है।’

‘उसे भूल जाओ।’

‘चाय ठंडी हो गयी थी।’

‘शायद मुझे पकौड़ी का इंतजार था।’

यह कहकर काका ने जोर का ठहाका लगाया।

मैं बूढ़े काका की मुस्कान को महसूस कर रहा था। मेरा मन प्रसन्न था। खुशी के बिखरने के कारण उसकी बूंदें वातावरण के मिजाज को बदल चुकी थीं।

वे बूढ़े हैं, धीरे-धीरे कमजोर हो रहे हैं। जस्बा जवानों से कई गुना बेहतर लगता है।

‘जिंदगी के मायने आप जैसे उम्रदराजों ने बदल दिए।’ मैंने कहा।

इसपर काका बोले,‘उम्र क्या चीज है, हम तो जिंदगी को जीते हैं। मेरी जिंदगी अपनों के सहारे जरुर है, लेकिन स्वयं के सहारे भी मुझे चलना आता है। जिंदादिली जो थी पहले, आज उसका रंग भले ही बदरंग सा लगे, मगर रंग तो है। खुलकर जीने का सपना इस उम्र में वही देखते हैं जिन्हें खुद पर विश्वास है। मैंने उम्रदराजी को जाना, समझा है। सपना देखा है, अब जी रहा हूं। भरोसा था खुद पर और उसी के सहारे ‘कष्टों की मचान’ कहे जाने वाले बुढ़ापे में मुस्कराहट के फूल खिल जाएं तो क्या बुराई है।’

इतना कहकर बूढ़े काका ने चाय की चुस्की ली। उनके चेहरे पर विश्वास के भाव थे। स्पष्ट था कि उम्र बीत रही है पल पल लेकिन विश्वास कायम है।

-harminder singh

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