एक कैदी की डायरी -48

jail diary, kaidi ki diary, vradhgram, harminder singh, gajraulaमेरी जिंदगी एक छोटी-सी किताब है जो कुछ पन्नों में सिमट कर रह गयी है। मैं हारना नहीं चाहता, मैं जीतना चाहता हूं। शब्दों को जोड़कर मैं क्या हासिल कर सकता हूं? यह बेसहारा मन को तसल्ली देने के बराबर है। बोझ जीवन का इतना बड़ा है कि यह ढोया नहीं जाता। बस इससे आगे मेरी सोच विकलांग हो जाती है, इधर-उधर हाथ-पांव मारने लगती है।

  गहरे पानी में डूबने की ख्वाहिश है ताकि बाहर आसानी से न आया जा सके। असीमित इच्छाओं की दुर्गति मेरे सामने हो रही है। यह बुरा है, काफी बुरा। जी करता है इन सलाखों को गला दूं। इन बेजान, बेजुबान दीवारों को पिघला दूं। पर ऐसा होगा नहीं, मैं जानता हूं। मैं यह भी जानता हूं कि हम इंसान दुख और सुख का भार समय के साथ सहते हैं। कुछ चिल्लाते हैं, कुछ अपना दुखड़ा सुनाते हैं। कुछ चुप रह जाते हैं और कुछ खुद दुनिया को बदलने चल पड़ते हैं।

  वैसे भी यहां रहकर जीना सीख रहा हूं। जीवन की गहराई को नापने का यह अवसर प्रतीत हो रहा है जो मेरे विचारों को अजीब बना रहा है। खुद में क्या छिपाकर रखा मैंने अबतक उसे मैं धीरे-धीरे बाहर निकाल रहा हूं। फिर मुझे वक्त ही कहां लगा था, मैं दुनियादारी में जो व्यस्त हो गया था। वह जीवन का अलग हिस्सा था। उस हिस्से को काटकर जुदा करना नामुमकिन है। हम ऐसा कर भी नहीं सकते। हर हिस्सा जो हमें दूसरे हिस्से से जोड़कर रखता है महत्वपूर्ण होता है। हम नहीं चाहते कि कोई हिस्सा छूट जाए। तब जीवन बिल्कुल बदल जाएगा।

  समझदारी इसी में मुझे लगती है कि रिश्तों से खुद को अलग कर लूं। पर फिर ख्याल आता है कि रिश्ते एक बार बन जाते हैं तो जिंदगी भर के लिए हम उनसे जुड़ जाते हैं। यह जुड़ाव कई बार इतना पक्का हो जाता है कि किसी से बिछुड़ने का कष्ट असहनीय होता है, जैसा मैं महसूस कर सकता हूं।
 
  मुझे किसी ने नहीं कहा कि मैं एक दायरे में जीऊं। रिश्ते हमें दायरे में जीना सिखाते हैं। समाज में बंधनों का महत्व होता है। कुछ लोग जुड़कर भी बंधन-मुक्त होते हैं -उनके लिए कई मायने दूसरों की अपेक्षा उलट होते हैं। उनका जीवन उनके मुताबिक चलता है, ऐसा नहीं है और न ही वे संबंधों को जाल की तरह ओढ़ते हैं।

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मानो के मां-बाप को प्रसन्नता इसकी थी कि दामाद उनकी बेटी को बड़े लाड से रखेगा, कोई कमी न खलने देगा। बाद में यह गलतफहमी सिद्ध हुई। मानो ने पति का सुख केवल महीना भर ही देखा। सास-ससुर थे नहीं, तीन निठल्ली बहनों का इकलौता भाई था मानो का पति दिनेश। नंदों की चालों की कामयाबी इसमें रही कि उन्होंने ‘भाई को पत्नि के चंगुल से छुड़ा लिया’ -ऐसा वे कहती थीं। बड़ी बहन सरिता की शादी की उम्र बीत चुकी थी। उससे छोटी सविता कालेज में पढ़ रही थी।

 ‘क्या हुआ तीसरी बार ही तो फेल हुई है। बड़ी दीदी ने इंटर चार कोशिशों में पास किया था।’ सबसे छोटी सावित्री ने दिनेश से उसके गुस्सा होने पर एक बार कहा था।

  मानो ने अपने माता-पिता को कई महीने तक एहसास नहीं होने दिया कि उसके साथ ससुराल में क्या हो रहा है? वह बर्दाश्त करती रही, दिन बीतते रहे, खुशियां लुटती रहीं, आंसू बहते रहे।

  उम्मीदों की बलि कब की चढ़ चुकी थी, लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि मानवंती ऐसी स्त्री बन चुकी थी जो अंदर ही अंदर घुट रही थी और मुंह से ‘उफ’ तक न निकलता था, पर आंसू झर-झर बहते थे। वह संसार की उन स्त्रियों में थी जिन्हें दर्द इतना दिया जाता है कि वे उसे सहन न कर पायें, लेकिन मर्यादा की विशाल दीवार को तोड़ना भी नहीं चाहतीं। यह एक तरह से गेंहू के चक्के के दो पाटों के बीच पिसने के समान है। प्रताड़ना और उपहास का जब संगम होता है तब स्थिति बिल्कुल बदली हुई होती है। सविता और सरिता ने कई बार मानो को बालों सहित दूर फर्श पर घसीटा। प्रताड़ना पहुंचाने वाला कारण नहीं पूछता। उसे सिर्फ बहाना चाहिए और बहाने सरलता से उपलब्ध हो ही जाते हैं। कपड़े धोते-धोते मानो को पीटा गया क्योंकि वह उन्हें गति से नहीं धो रही थी। लात-घूंसों का हिसाब मानवंती को मालूम न था। वह उनकी आदि हो चली थी। उसकी मानसिक स्थिति पहले जैसी नहीं रही थी।
जारी है...

-Harminder Singh

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