क्या पाया इतना जीकर?


‘‘हम ख्वाहिश उन चीजों की करते हैं, जो हमारे पास नहीं।’’ बूढ़ी काकी बोली।

‘‘अक्सर हम भूल जाते हैं कि जो हमारे पास है, बहुतों के पास उतना भी नहीं।’’

‘‘पाना बहुत चाहते हैं, दूसरों के लिए हृदय में जगह बिल्कुल नहीं। फिर हम कैसे संतुष्ट रह सकते हैं? त्रुटियां बाहर नहीं, हमारे भीतर हैं। संतुष्ट रहने के लिए मन को भरना पड़ता है। खाली चीजें शोर बहुत करती हैं। जबतक दूसरों को बढ़ता देख हम मन मसोसते रहेंगे, कुछ अच्छा नहीं होगा। आशा करो, लेकिन उसकी पूर्ति करनी भी जरुरी है।’’

‘‘इंसान भागता है इधर-उधर। कुछ पाने की हसरत है। हासिल इतना हुआ, अब उतना भी चाहिए। हृदय की इच्छा कभी पूर्ण नहीं होती। हृदय की सुनने वाले ठोकर जल्दी या देर से खाते हैं। मगर ठोकर होती पक्की है। खुशी ढ़ूंढने आये थे, दर्द लेकर जा रहे हैं।’’

‘‘जिंदगी इसी तरह गुजर जाती है। बुढ़ापे में भी एकांत नहीं मिलता। फिर कहते हैं-‘पाया क्या इतना जीकर?’ शायद कुछ नहीं- सिवाय दर्द और दुख के। इससे तो जन्म ही न लिया होता। पहले मां को दर्द दिया, अब खुद दुखी होकर जाना होगा। रोते हुए आये थे, रोते हुए जायेंगे। तब भी आंसू नहीं थे, अब भी नहीं होंगे।’’

मैंने काकी से कहा,‘‘इतना कुछ तो मिला हमें जीकर। आप कहती हो, जीने से हासिल कुछ नहीं हुआ।’’

इसपर काकी बोली,‘‘यह बात खुद से बूढ़े होकर पूछना। तब तुम उत्तर ढूंढ सको। कई बार कुछ सवाल ऐसे होते हैं, जिनका उत्तर तमाम जिंदगी नहीं मिल पाता, लेकिन लंबा समय बीत जाने के बाद उत्तर खुद-ब-खुद सामने आ जाता है। शायद वह ईश्वर की मर्जी होती है।’’

‘‘हमारे जैसे वृद्ध स्वयं से इतने सवाल पूछ लेते हैं कि संशय का कोहरा घना होने लगता है। पता है, हमें बादल छंटने का इंतजार नहीं होता। जीवन के सारे रस जब छिन जाते हैं तब एहसास होता है कि अरे, हम बूढ़े हो गए। जिंदगी लगती लंबी थी कभी, अचानक इतनी छोटी कैसे हो गयी? ऐसा लगता है जैसे कल एक सपना था।’’

‘‘वास्तव में हमने जर्जरता को पाया इतना जीकर। बुढ़ापा हासिल किया इतना जीकर। थकी काया को ढोने का इंतजाम किया इतना जीकर। रि’तों को जोड़ा-तोड़ा, बुरा-भला किया जीकर। कुछ नहीं, फिर भी सबकुछ किया हमने। सिर्फ पहचान नहीं की खुद की, क्योंकि हम संसार में खो गए। उन चीजों को पाने की कोशिश की जो हमारे साथ आगे नहीं जाने वालीं। खोकर खुद को फिर पाया क्या हमने इतना जीकर?’’

-Harminder Singh