एक कैदी की डायरी- 26

दादी को हद तक सताती थी शीला। छोटी-छोटी बातों को बड़ा बनाने की जैसे उसे आदत थी। बेचारी दादी अपना दुख किस से कहती, बहू रही नहीं थी, बेटा नई जोरु की खुशामद में इतना व्यस्त था कि उसे अपनी मां और संतान को देखने का वक्त नहीं मिलता था।

मुझे कई बार दुत्कार कर शीला ने कहा कि मुझे भी अपनी मां के साथ मर जाना चाहिए था। शीला का लड़का दिन भर उछलकूद करता रहता। मुझे पढ़ने नहीं देता था। मैं उससे बात नहीं करता था, लेकिन दूसरों को व्यर्थ की परेशानी देने की कला जैसे वह अपनी मां से सीख कर आया था। मेरी किताबों-कापियों पर वह थूक देता था। मेरा बस्ता उलट-पुलट करने में उसे आनंद आता था। उसकी प्रकृति मेरे लिए नुक्सानदायक हो चली थी। शीला का लड़का मुझे सता रहा था, लड़के की मां एक बूढ़ी स्त्री को जिसका बेटा गुलाम था।

मेरी कहानी भीगी हुई है। इसमें आंसुओं का बहना केवल कुछ समय के लिए रुकता है, शायद आंखें आराम चाहती हैं। नींद काटकर थोड़ा वक्त परेशानियों से दूरी बनी रहती है, लेकिन वहां भी मुझे चैन नहीं आता।

कुछ ऐसे सपने होते हैं जो पलकों को भिगो देते हैं। मैं अजीब स्थिति से होकर गुजर रहा था। मेरा मन करता था कि घर से भाग जाऊं। फिर यह सोचकर बैठ जाता कि जाऊंगा कहां? कौन रखेगा मुझे? क्या पता यहां से बुरे लोग मिल गये, तो क्या करुंगा? मेरे सारे विकल्प बंद थे।

कच्ची उम्र की सोच पकी हुई नहीं होती। सोचा बहुत कुछ जाता है, मगर उसमें कचरा अधिक होता है। फैसले लेने की समझ उतनी होती नहीं, इसलिए जैसा हो रहा होता है उसी से संतोष करना पड़ता है। नासमझी में किये फैसले अक्सर चोट दे जाते हैं। छोटी उम्र हंसने-खेलने और मौज-मस्ती की होती है, न कि गंभीर होकर आसपास बदलते वातावरण को परखने की। मन को तपती धूप से बचाने के लिए उसे बुरेपन से बचकर खेलने की सलाह दी जाती है।

जब हमने बचपन से ही कष्टों को झेला हो, लेकिन हमें उनकी आदत न पड़ी हो तब भी जीवन सामान्य ही रहता है। एक बात जो अहम है वह है गंभीर होना। मैं बचपन से ही हर चीज को महसूस करता हूं। मुझे ऐसा लगता है कि मैं आज भी कई मायनों में पहले जैसा ही हूं। इतना बूढ़ा होकर भी वही पुराना एक मामूली बच्चा।


to be contd...


Harminder Singh